जीवनी/आत्मकथा >> भारत से प्यार भारत से प्यारआर.एम.लाला
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जमशेदजी टाटा का जीवन और उनके समय का जीवंत चित्रण
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जमशेदजी नुसेरवानजी टाटा का जन्म 1839 में हुआ था। उनके जीवनकाल में भारत
अंग्रेजों के शिकंजे में कसा रहा। फिर भी उनके द्वारा परिकल्पित
परियोजनाएँ देश के आजाद हो जाने पर उसके विकास का आधार बनीं। अपनी प्रकृति
से साधारण होते हुए भी ये संस्थान अपने-अपने क्षेत्रों में दूसरों के लिए
आदर्श बने हुए हैं। उनकी ढेर सारी उपलब्धियों में देश के कुछ बेहतरीन
वैज्ञानिकों को तैयार करनेवाला बेंगलूर का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस;
जमशेदपुर स्थित टाटा इस्पात संयंत्र; जो कि देश के व्यापार से विनिर्माण
में संक्रमण करने का द्योतक है; उनकी पथ-प्रदर्शक पनबिजली परियोजना और
दुनिया के लाजवाब होटलों में से एक मुंबई का ताजमहल होटल शामिल है।
अपने हाथ में लिये अन्य कामों की भाँति जमशेदजी ने इन परियोजनाओं में एक ऐसे व्यक्ति की अमोद्य नैसर्गिक वृत्ति को प्रकट किया जिसे पता था कि पराधीन राष्ट्र के गौरव की बहाली कैसे की जाए। उन्होंने देश की आजादी के बाद उसे दुनिया के अग्रणी राष्ट्रों में स्थान पाने में मदद की।
ये परियोजनाएँ जिस बड़े पैमाने की थीं उसके लिए बहुत दम-गुर्दे की आवश्यकता थी। कुछ मामलों में तो बस लगे रहने की जिद ही थी जो कि रंग लाई-जैसे कि इस्पात परियोजना के लिए उपयुक्त जगह की तलाश करने का मामला असीम धैर्य के कारण हल हुआ। दूसरे मामलों में, जैसे-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में मान-मनुहार करने का उनका लाजवाब कौशल और धैर्य ही था जिसने आखिरकार शंकालु वाइसराय लॉर्ड कर्जन से उन्हें मंजूरी दिलवाई।
‘भारत से प्यार’ में आर.एम. लाला ने जमशेदजी और उनके समय के जीवंत चित्रण के लिए लन्दन की इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी और दूसरे अभिलेखागारों की नवीन सामग्री के साथ-साथ उनके पत्रों का उपयोग किया। यह एक महत्वपूर्ण लेखा-जोखा है जो स्पष्ट कर देता है कि जमशेदजी की उपलब्धि वाकई मानीखेज थी और उनकी मृत्यु के सौ साल बाद भी ऐसा क्यों जान पड़ता है कि वे अपने समय से बहुत आगे थे।
धन उनके पास पर्याप्त मात्रा में आया लेकिन अन्ततः प्रकृति से वे एक विनम्र, आधुनिक भद्र पुरुष थे जिन्होंने कभी पद और प्रतिष्ठा की तलाश नहीं की। और वे प्यार करते रहे क्योंकि जानते थे कि जन्म से जुड़ी जगह बन्धन नहीं होते
अपने हाथ में लिये अन्य कामों की भाँति जमशेदजी ने इन परियोजनाओं में एक ऐसे व्यक्ति की अमोद्य नैसर्गिक वृत्ति को प्रकट किया जिसे पता था कि पराधीन राष्ट्र के गौरव की बहाली कैसे की जाए। उन्होंने देश की आजादी के बाद उसे दुनिया के अग्रणी राष्ट्रों में स्थान पाने में मदद की।
ये परियोजनाएँ जिस बड़े पैमाने की थीं उसके लिए बहुत दम-गुर्दे की आवश्यकता थी। कुछ मामलों में तो बस लगे रहने की जिद ही थी जो कि रंग लाई-जैसे कि इस्पात परियोजना के लिए उपयुक्त जगह की तलाश करने का मामला असीम धैर्य के कारण हल हुआ। दूसरे मामलों में, जैसे-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में मान-मनुहार करने का उनका लाजवाब कौशल और धैर्य ही था जिसने आखिरकार शंकालु वाइसराय लॉर्ड कर्जन से उन्हें मंजूरी दिलवाई।
‘भारत से प्यार’ में आर.एम. लाला ने जमशेदजी और उनके समय के जीवंत चित्रण के लिए लन्दन की इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी और दूसरे अभिलेखागारों की नवीन सामग्री के साथ-साथ उनके पत्रों का उपयोग किया। यह एक महत्वपूर्ण लेखा-जोखा है जो स्पष्ट कर देता है कि जमशेदजी की उपलब्धि वाकई मानीखेज थी और उनकी मृत्यु के सौ साल बाद भी ऐसा क्यों जान पड़ता है कि वे अपने समय से बहुत आगे थे।
धन उनके पास पर्याप्त मात्रा में आया लेकिन अन्ततः प्रकृति से वे एक विनम्र, आधुनिक भद्र पुरुष थे जिन्होंने कभी पद और प्रतिष्ठा की तलाश नहीं की। और वे प्यार करते रहे क्योंकि जानते थे कि जन्म से जुड़ी जगह बन्धन नहीं होते
-सर लावरेंस जनकिंस
चीफ जस्टिस, बम्बई हाई कोर्ट,
जमशेदजी टाटा की याद में आयोजित सभा में
28 मार्च 1905
चीफ जस्टिस, बम्बई हाई कोर्ट,
जमशेदजी टाटा की याद में आयोजित सभा में
28 मार्च 1905
आभार
भारत सचिव लॉर्ड जार्ज हैमिल्टन और उनके कार्यालय के साथ जे.एन.टाटा के
पत्राचार के लिए इंडिन ऑफिस लाइब्रेरी, लन्दन के प्रति।
भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के प्रति, विशेषकर दादा भाई नैरोजी को लिखे गए जे.एन.टाटा के पत्रों के लिए।
टाटा केन्द्रीय अभिलेखागार और उसके स्टाफ श्री एच. रघुनाथ और आर.पी. नारला के प्रति उनके सहयोग के लिए और सुश्री फ्रेनी श्राफ के प्रति चित्रों के चयन में मदद प्रदान करने के लिए।
टाटा परिवार और सहयोगियों के काफी मात्रा में पारिवारिक पत्राचार और टाटा इस्पात के शुभारम्भ के बारे में मूल्यवान सूचना के लिए टाटा इस्पात अभिलेखागार के प्रति।
‘पारसी प्रकाश’ और अथोर्नान नामू की तरह के दुर्लभ पारसी स्रोतों की खोजबीन के विए के.आर.कामा ओरिएंटल इंस्टीट्यूट के प्रति। इन स्रोतों का श्रमसाध्य ढंग से अध्ययन करने और असम्बद्ध हिस्सों को अंग्रेजी में अनूदित करने के लिए श्री मुर्जबना गिआरा के प्रति।
टाटा सिल्क फार्म के बारे में जानकारी के लिए मैसूर रियासत के अभिलेखागार के प्रति, जिसकी खोजबीन ‘इतिहास एवं विज्ञान का दर्शन’ के अन्तर्राष्ट्रीय संघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ.बी.वी.सुब्बारायप्पा में मेरे लिए की।
इस पुस्तक को लिखने एवं लिपिकीय सुविधाओं के लिए सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के प्रबन्ध न्यासी डॉ. जे.जे. भाभा के प्रति।
पांडुलिपि के बारे में त्रुटिरहित और अमूल्य लिपिकीय सहायता के लिए श्रीमती विल्लू के.करकरिया के प्रति और श्री अरविन्द मैम्ब्रो के प्रति, जिनसे अभिलेखागारीय विशेषज्ञता का योगदान मिला।
पेंगुइन के वरिष्ठ प्रबन्ध-सम्पादक कृष्ण चोपड़ा के प्रति मेरा विशेष आभार, जिन्होंने पांडुलिपि को प्रेस के लिए तैयार करने में जी-जान से मेहनत की।
भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के प्रति, विशेषकर दादा भाई नैरोजी को लिखे गए जे.एन.टाटा के पत्रों के लिए।
टाटा केन्द्रीय अभिलेखागार और उसके स्टाफ श्री एच. रघुनाथ और आर.पी. नारला के प्रति उनके सहयोग के लिए और सुश्री फ्रेनी श्राफ के प्रति चित्रों के चयन में मदद प्रदान करने के लिए।
टाटा परिवार और सहयोगियों के काफी मात्रा में पारिवारिक पत्राचार और टाटा इस्पात के शुभारम्भ के बारे में मूल्यवान सूचना के लिए टाटा इस्पात अभिलेखागार के प्रति।
‘पारसी प्रकाश’ और अथोर्नान नामू की तरह के दुर्लभ पारसी स्रोतों की खोजबीन के विए के.आर.कामा ओरिएंटल इंस्टीट्यूट के प्रति। इन स्रोतों का श्रमसाध्य ढंग से अध्ययन करने और असम्बद्ध हिस्सों को अंग्रेजी में अनूदित करने के लिए श्री मुर्जबना गिआरा के प्रति।
टाटा सिल्क फार्म के बारे में जानकारी के लिए मैसूर रियासत के अभिलेखागार के प्रति, जिसकी खोजबीन ‘इतिहास एवं विज्ञान का दर्शन’ के अन्तर्राष्ट्रीय संघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ.बी.वी.सुब्बारायप्पा में मेरे लिए की।
इस पुस्तक को लिखने एवं लिपिकीय सुविधाओं के लिए सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के प्रबन्ध न्यासी डॉ. जे.जे. भाभा के प्रति।
पांडुलिपि के बारे में त्रुटिरहित और अमूल्य लिपिकीय सहायता के लिए श्रीमती विल्लू के.करकरिया के प्रति और श्री अरविन्द मैम्ब्रो के प्रति, जिनसे अभिलेखागारीय विशेषज्ञता का योगदान मिला।
पेंगुइन के वरिष्ठ प्रबन्ध-सम्पादक कृष्ण चोपड़ा के प्रति मेरा विशेष आभार, जिन्होंने पांडुलिपि को प्रेस के लिए तैयार करने में जी-जान से मेहनत की।
प्रस्तावना
जमशेतजी ऐसे व्यक्ति थे जिनकी निगाहें भविष्य की ओर लगी हुई थीं। 1839 में
जमशेतजी का जन्म भारत के इतिहास को परिभाषित करने वाला क्षण साबित होने
वाला था। अगर जमशेतजी टाटा कुछ दशक पहले पैदा हुए होते तो राजनीतिक का
वातावरण ही नहीं, कानून एवं नियम व्यवस्था की अनिश्चित हालत से रू-ब-रू
हुए होते। उनके सपनों के लिए औद्योगिक माहौल भी उपयुक्त नहीं रहा होता,
क्योंकि तब तक न इस्पात बड़े पैमाने के औद्योगिक उपयोग में लाया जाता था
और न ही त्वरित परिवहन के लिए रेलवे बिजली उपलब्ध थी।
अगर वह अपने समय से कुछ दशक बाद पैदा हुए होते तो बहुत मुमकिन था कि इस्पात, जलविद्युत उर्जा और उच्चतर तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में दूसरे लोगों ने नेतृत्व प्रदान करने का काम किया होता। हालाँकि यह बात कठिनाई से ही सम्भव हो पाती कि इन तीनों कामों को कोई एक ही व्यक्ति अंजाम देता।
वह अपने भविष्य दर्शन के सन्दर्भ में सम्भवतः शिखर पर अकेले खड़े थे। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ एडवांस रिसर्च (बाद में चलकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस) जितनी बड़ी परियोजना की कल्पना की और एक ऐसे समय में इसकी आधारशिला रखी जब 30 साल पहले स्थापित हो चुके तीनों प्रेसीडेंसी कॉलेजों—बम्बई, मद्रास और कलकत्ता—ने अभी इस काम को हाथ नहीं लगाया था।
जब उनकी परियोजना के बारे में पहले-पहल वाइसराय लॉर्ड कर्जन को बताया गया तो वह इसमें योग्य छात्रों के प्रवेश तथा उनके रोजगार के अवसर को लेकर प्रश्न कर उठे थे।
उनके इस्पात संयन्त्र के पीछे यही पहुँच काम कर रही थी। यह परियोजना का आकार ही नहीं बल्कि गहरी आस्था भी थी जिसने उन्हें अमेरिका के सुप्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक के केबिन में दाखिल होने के लिए प्रेरित किया ताकि वह उपयुक्त स्थल की तलाश में भारत आने का उन्हें निमन्त्रण दे सकें।
उन्होंने विश्वास दिलाया कि वह सारा खर्चा वहन करेंगे।
दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के प्रदूषण के खतरे के प्रति जागृत हुई। उन्होंने भी उसके खतरे को पहचाना और असंख्य कपड़ा मिलों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ से प्रदूषित बम्बई के लिए साफ-सुथरी जलविद्युत उर्जा प्रणाली की व्यवस्था करने का संकल्प लिया।
उनके व्यक्तित्व ने सर्वप्रथम मुझे उस समय मन्त्रमुग्ध किया जब मैं 1979-80 में दि क्रिएशन ऑफ वेल्थ लिख रहा था। उसी समय से इस तरह का संयोग बना था कि मैं उनकी शख्सियत के बारे में सोच-विचार करूँ, उनके बारे में पता लगाऊँ, उन पर लिखूँ और बोलूँ। मैंने महसूस किया कि जमशेतजी की जीवनी लिखने का एकमात्र उपयुक्त तरीका यह है कि उन्हें उनके समय, उनकी शिक्षा, उनकी यात्राओं, उनकी मित्रमंडली और नवसारी पारसियों के लोकाचार के सन्दर्भ में अवस्थित करके देखा जाए, जहाँ पर वे पले-बढ़े थे।
उनका जीवन काल ब्रिटिश शाही शक्ति के उत्कर्ष के दिनों में व्यतीत हुआ। लार्ड हेलशाम ने 1970 में बीबीसी में अपने रीथ व्याख्यान में इस बात पर गौर किया था कि 1885 के क्रीमिया युद्ध और 1906 के जर्मनी के पुनः नौसैनिक पुनर्गठन के बीच की अवधि दुनिया में निर्विवाद ब्रिटिश प्रभुता की अवधि थी। यही वह काल था जब जे.एन. टाटा सक्रिय रूप से अपना जीवन जी रहे थे।
अब तक जमशेतजी की तीन जीवनियाँ लिखी जा चुकी हैं। उनके एक समकालीन सर दिनशा वाचा, जिन्हें उन्होंने विदेशी मिल में काम पर लगाया था और जो आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, ने 1914 में दि लाइफ एंड दि लाइफ वर्क ऑफ जे.एन.टाटा लिखी।
184 पृष्ठों की उनकी पतली सी पुस्तक में स्मृति-महोत्सव में जमशेतजी के प्रति अर्पित की गई श्रद्धांजलियों और प्रेस की टिप्पणियों के 50 पृष्ठ और जोड़े गए। ये श्रद्धांजलियाँ जमशेतजी के व्यक्तित्व पर उनके समकालीनों को पर्याप्त अन्तर्दृष्टि प्रदान करती हैं। इस पुस्तक में भरत वाक्य में उनके आकलों की सुगन्ध समाहित की गई है।
1925 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में लन्दन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में इतिहास के व्याख्याता एफ.आर. हैरिस द्वारा लिखी गई एक किताब प्रकाशित की। इस किताब की प्रस्तावना टाइम्स ऑफ इंडिया के सम्पादक स्टैनली रीड ने लिखी थी। ए.आर. हैरिस ने अपनी किताब का नाम दिया था
जे.एन.टाटा : ए क्रॉनिकल ऑफ हिज लाइफ। भरोसे मन्द इतिवृत्त लेखक ने वस्त्र-उद्योग, इस्पात जल विद्युत ऊर्जा और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के लिए जमशेतजी द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों का विस्तार से वर्णन किया है और उन्होंने पर्याप्त ईमानदारी का परिचय देते हुए इसे ‘ऐतिहासिक अभिलेख’ कहा है, न कि जीवनी।
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जे.आर.डी.टाटा की प्रस्तावना के साथ ब्लैकी एंड सन द्वारा 1958 में पुनर्मुद्रित।
हैरिस ने उनके जीवन से जुड़े तथ्यों को दर्ज करने के क्रम में अमूल्य योगदान दिया है। जमशेतजी के उन कागजात तक उनकी पहुँच थी जो उनकी डायरी समेत उसी समय न जाने कहाँ खो गए थे।
बहरहाल, उन्होंने साइंस इंस्टीट्यूट को खड़ा करने के लिए लार्ड कर्जन के साथ उनके संघर्ष को न तो समेटा है और न ही जमशेतजी को बैरोनेट (उपसामन्त) के पद की पेशकस से जुड़े मामले को स्थान दिया है जैसाकि इस पुस्तक में किया गया है।
मैंने सर्वाधिक मूल्यवान जानकारी इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी के कागजात से और थोड़ी-बहुत भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त की। इंडिया ऑफिस में उपलब्ध सामग्री में जो चीजे मुझे सर्वाधिक दिलचस्प लगी, वह थी लार्ड कर्जन और जमशेतजी टाटा के बीच वाले संघर्ष का विवरण।
मेरे लिए यह ब्रिटिश शासन के तहत काम करने वाली किसी व्यक्ति के चरित्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परीक्षण था। अपने विश्वासों के लिए भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्ध भला कौन अड़कर खड़ा हो सकता था ! वह यह देखने के लिए जीवित नहीं रहे कि लार्ड कर्जन ने उनकी परियोजना को अपनी स्वीकृति प्रदान की, जो 19मई 1904 को उनकी मृत्यु के बाद फलीभूत हुई। अंग्रेज सोचते थे
कि वह स्थापित किए जाने वाले संस्थान के लिए चौदह इमारतों और चार
भू-सम्पत्तियों की अपनी वसीयत को निरस्त करके अपने संसाधनों को लोहे एवं बिजली की अपनी परियोजनाओं की ओर मोड़ देंगे, लेकिन जमशेतजी ने आखिर तक अपने भविष्य-स्वप्न को कायम रखा। गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा 1909 में स्वीकृत किया गया यह विश्वविद्यालय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलूर है जो भारत की वैज्ञानिक प्रगति का स्रोत है क्योंकि यह हमारी चन्द राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में से एक है।
1970 में ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ श्रृंखला में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने बहराम साकलतवाला और के.खोसला द्वारा लिखित पुस्तक जमशेतजी टाटा को जारी किया। उन्होंने जमशेतजी टाटा की डायरी, पत्रों और लेखों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी प्रदान की। दुख की बात है कि आज वह सामग्री उपलब्ध नहीं है। सह-लेखक साकलतवाला जमशेतजी के भतीजे शापुरजी के बेटे थे
अब जमशेत जी की मृत्यु के सौ साल बाद नए सिरे से उनका मूल्यांकन करने का समय आ गया है। इस जीवनी को लिखते समय मैंने पाया कि गम्भीर महत्व की जो चीज छूट रही थी, वह थी उस समय के भाषायी अखबारों का अध्ययन।
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संडे स्टैंडर्ड, दिसम्बर 1984 एंड दि टाटा रिव्यु।
अगर वह अपने समय से कुछ दशक बाद पैदा हुए होते तो बहुत मुमकिन था कि इस्पात, जलविद्युत उर्जा और उच्चतर तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में दूसरे लोगों ने नेतृत्व प्रदान करने का काम किया होता। हालाँकि यह बात कठिनाई से ही सम्भव हो पाती कि इन तीनों कामों को कोई एक ही व्यक्ति अंजाम देता।
वह अपने भविष्य दर्शन के सन्दर्भ में सम्भवतः शिखर पर अकेले खड़े थे। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ एडवांस रिसर्च (बाद में चलकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस) जितनी बड़ी परियोजना की कल्पना की और एक ऐसे समय में इसकी आधारशिला रखी जब 30 साल पहले स्थापित हो चुके तीनों प्रेसीडेंसी कॉलेजों—बम्बई, मद्रास और कलकत्ता—ने अभी इस काम को हाथ नहीं लगाया था।
जब उनकी परियोजना के बारे में पहले-पहल वाइसराय लॉर्ड कर्जन को बताया गया तो वह इसमें योग्य छात्रों के प्रवेश तथा उनके रोजगार के अवसर को लेकर प्रश्न कर उठे थे।
उनके इस्पात संयन्त्र के पीछे यही पहुँच काम कर रही थी। यह परियोजना का आकार ही नहीं बल्कि गहरी आस्था भी थी जिसने उन्हें अमेरिका के सुप्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक के केबिन में दाखिल होने के लिए प्रेरित किया ताकि वह उपयुक्त स्थल की तलाश में भारत आने का उन्हें निमन्त्रण दे सकें।
उन्होंने विश्वास दिलाया कि वह सारा खर्चा वहन करेंगे।
दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के प्रदूषण के खतरे के प्रति जागृत हुई। उन्होंने भी उसके खतरे को पहचाना और असंख्य कपड़ा मिलों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ से प्रदूषित बम्बई के लिए साफ-सुथरी जलविद्युत उर्जा प्रणाली की व्यवस्था करने का संकल्प लिया।
उनके व्यक्तित्व ने सर्वप्रथम मुझे उस समय मन्त्रमुग्ध किया जब मैं 1979-80 में दि क्रिएशन ऑफ वेल्थ लिख रहा था। उसी समय से इस तरह का संयोग बना था कि मैं उनकी शख्सियत के बारे में सोच-विचार करूँ, उनके बारे में पता लगाऊँ, उन पर लिखूँ और बोलूँ। मैंने महसूस किया कि जमशेतजी की जीवनी लिखने का एकमात्र उपयुक्त तरीका यह है कि उन्हें उनके समय, उनकी शिक्षा, उनकी यात्राओं, उनकी मित्रमंडली और नवसारी पारसियों के लोकाचार के सन्दर्भ में अवस्थित करके देखा जाए, जहाँ पर वे पले-बढ़े थे।
उनका जीवन काल ब्रिटिश शाही शक्ति के उत्कर्ष के दिनों में व्यतीत हुआ। लार्ड हेलशाम ने 1970 में बीबीसी में अपने रीथ व्याख्यान में इस बात पर गौर किया था कि 1885 के क्रीमिया युद्ध और 1906 के जर्मनी के पुनः नौसैनिक पुनर्गठन के बीच की अवधि दुनिया में निर्विवाद ब्रिटिश प्रभुता की अवधि थी। यही वह काल था जब जे.एन. टाटा सक्रिय रूप से अपना जीवन जी रहे थे।
अब तक जमशेतजी की तीन जीवनियाँ लिखी जा चुकी हैं। उनके एक समकालीन सर दिनशा वाचा, जिन्हें उन्होंने विदेशी मिल में काम पर लगाया था और जो आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, ने 1914 में दि लाइफ एंड दि लाइफ वर्क ऑफ जे.एन.टाटा लिखी।
184 पृष्ठों की उनकी पतली सी पुस्तक में स्मृति-महोत्सव में जमशेतजी के प्रति अर्पित की गई श्रद्धांजलियों और प्रेस की टिप्पणियों के 50 पृष्ठ और जोड़े गए। ये श्रद्धांजलियाँ जमशेतजी के व्यक्तित्व पर उनके समकालीनों को पर्याप्त अन्तर्दृष्टि प्रदान करती हैं। इस पुस्तक में भरत वाक्य में उनके आकलों की सुगन्ध समाहित की गई है।
1925 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में लन्दन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में इतिहास के व्याख्याता एफ.आर. हैरिस द्वारा लिखी गई एक किताब प्रकाशित की। इस किताब की प्रस्तावना टाइम्स ऑफ इंडिया के सम्पादक स्टैनली रीड ने लिखी थी। ए.आर. हैरिस ने अपनी किताब का नाम दिया था
जे.एन.टाटा : ए क्रॉनिकल ऑफ हिज लाइफ। भरोसे मन्द इतिवृत्त लेखक ने वस्त्र-उद्योग, इस्पात जल विद्युत ऊर्जा और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के लिए जमशेतजी द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों का विस्तार से वर्णन किया है और उन्होंने पर्याप्त ईमानदारी का परिचय देते हुए इसे ‘ऐतिहासिक अभिलेख’ कहा है, न कि जीवनी।
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जे.आर.डी.टाटा की प्रस्तावना के साथ ब्लैकी एंड सन द्वारा 1958 में पुनर्मुद्रित।
हैरिस ने उनके जीवन से जुड़े तथ्यों को दर्ज करने के क्रम में अमूल्य योगदान दिया है। जमशेतजी के उन कागजात तक उनकी पहुँच थी जो उनकी डायरी समेत उसी समय न जाने कहाँ खो गए थे।
बहरहाल, उन्होंने साइंस इंस्टीट्यूट को खड़ा करने के लिए लार्ड कर्जन के साथ उनके संघर्ष को न तो समेटा है और न ही जमशेतजी को बैरोनेट (उपसामन्त) के पद की पेशकस से जुड़े मामले को स्थान दिया है जैसाकि इस पुस्तक में किया गया है।
मैंने सर्वाधिक मूल्यवान जानकारी इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी के कागजात से और थोड़ी-बहुत भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त की। इंडिया ऑफिस में उपलब्ध सामग्री में जो चीजे मुझे सर्वाधिक दिलचस्प लगी, वह थी लार्ड कर्जन और जमशेतजी टाटा के बीच वाले संघर्ष का विवरण।
मेरे लिए यह ब्रिटिश शासन के तहत काम करने वाली किसी व्यक्ति के चरित्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परीक्षण था। अपने विश्वासों के लिए भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्ध भला कौन अड़कर खड़ा हो सकता था ! वह यह देखने के लिए जीवित नहीं रहे कि लार्ड कर्जन ने उनकी परियोजना को अपनी स्वीकृति प्रदान की, जो 19मई 1904 को उनकी मृत्यु के बाद फलीभूत हुई। अंग्रेज सोचते थे
कि वह स्थापित किए जाने वाले संस्थान के लिए चौदह इमारतों और चार
भू-सम्पत्तियों की अपनी वसीयत को निरस्त करके अपने संसाधनों को लोहे एवं बिजली की अपनी परियोजनाओं की ओर मोड़ देंगे, लेकिन जमशेतजी ने आखिर तक अपने भविष्य-स्वप्न को कायम रखा। गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा 1909 में स्वीकृत किया गया यह विश्वविद्यालय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलूर है जो भारत की वैज्ञानिक प्रगति का स्रोत है क्योंकि यह हमारी चन्द राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में से एक है।
1970 में ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ श्रृंखला में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने बहराम साकलतवाला और के.खोसला द्वारा लिखित पुस्तक जमशेतजी टाटा को जारी किया। उन्होंने जमशेतजी टाटा की डायरी, पत्रों और लेखों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी प्रदान की। दुख की बात है कि आज वह सामग्री उपलब्ध नहीं है। सह-लेखक साकलतवाला जमशेतजी के भतीजे शापुरजी के बेटे थे
अब जमशेत जी की मृत्यु के सौ साल बाद नए सिरे से उनका मूल्यांकन करने का समय आ गया है। इस जीवनी को लिखते समय मैंने पाया कि गम्भीर महत्व की जो चीज छूट रही थी, वह थी उस समय के भाषायी अखबारों का अध्ययन।
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संडे स्टैंडर्ड, दिसम्बर 1984 एंड दि टाटा रिव्यु।
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